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कविता

आयु के प्रूफ

प्रेमशंकर शुक्ल


उधड़ गया हूँ कितनी-कितनी जगह
किरनें मेरी तुरपाई कर रही हैं
देखिए न आप -
बाँच रहा हूँ धरती
और भरा जा रहा है आसमान

पूरब का लाल रंग
अभी गीला है बहुत
दवात में भरा हुआ
इसी लाल से सुबह-सुबह
मैं अपनी आयु के प्रूफ देखता हूँ।

 


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